साधुवाद आदरणीय भाई रामकिशोर दाहिया जी, आज आपने कमवयस किन्तु परिपक्व रचनात्मक संसार के धनी प्रिय चित्रांश वाघमारे के नवगीत पटल पर प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया । धन्यवाद बंधु ।
विविध विषयों से संदर्भित कथ्यों के ये गीत चित्रांश जी की सोच के फलक की व्यापकता दिखाते हैं । चित्रांश जी जहाँ मनुष्य की अपने ही मन की उलझनों, भटकावों को खँगालते हुए लिखते हैं "बंद खिड़कियों जैसा मन है /अपने ही भटकावों का खुद हमको ही अनुमान नहीं है "
वहीं घर परिवार के लिए श्रम करती हुई भी माँ के बेफिक्र होने को सुन्दर व्यञ्जना से भर देते हैं-
"हँसकर पल भर में ही अम्मा
सारी फिक्र निचोड़ रही है "
ऐसी ही उल्लेखनीय पंक्तियाँ है "पत्र आया और आँखें
खोलकर संवाद बोले "
भीड़ में अनुयायियों की
हो सको शामिल तो ठीक "
है गहन तम पर दियों का
टिमटिमाना तक मना है "
झेलती है हर कली
अब द्रौपदी सी
मौसमी दु: शासनों के घाव गहरे "
चित्राश जहाँ बहुत निकट से कथ्य उठाते हैं वहीं सामाजिक असंगतियों पर भी अपनी बात कहते हैं ।
"राम खो गए दंडक वन में 'नवगीत में बहुत प्रभावी रुपक रच कर अद्भुत व्यञ्जना को धार दी गई है ।
एक बहुत ही प्यारा नवगीत है चित्रांश का
नटनी सी, पतली रस्सी पर
चलती रहती मेरी माँ
भरती अपनेपन की मिट्टी
उभरी हुई दरारों में "
हाँ अन्त में "भूख से टूटी कलम ने छंद गिरवी रख दिए " पर मेरा मानना है कि छंद गिरवी रखने वाले लोग तो गले तक अघाये अफरे लोग थे । निराला से लेकर दिनकर तक किसी ने छंद से समझौता नहीं किया । यद्यपि यह पूरा गीत भी बहुत सुन्दर और प्रभावी है ।
चित्रांश के नवगीतों में ठेठ गीतों की पुष्टता के साथ नवगीतपरक कथ्यात्मकता की सहज स्थिति देखी जा सकती है । परिपूर्ण प्रवाह के साथ नवगीत की चुनौती भरे विषयों पर सहजता से बात कहना ही रचनाकार की सफलता है । बहुत बधाई, शुभाशीष भाई चित्रांश ।
-राजा अवस्थी
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