Friday, August 04, 2023

कुछ भी बदला नहीं

कुछ भी बदला
नहीं फलाने
सब जैसा का तैसा है
सब कुछ पूछो
यह मत पूछो
आम आदमी कैसा है

क्या सचिवालय
क्या न्यायालय
सबका वही रवैय्या है
बाबू बड़ा ना
भैय्या प्यारे
सबसे बड़ा रुपैय्या है
पब्लिक जैसे
हरी फसल है
शासन भूखा भैंसा है

मंत्री के
पी.ए.का नक्शा
मंत्री से भी हाई है
बिना कमीशन
काम न होता
उसकी यही कमाई है
रुक जाता है
कहकर फौरन
देखो भाई ऐसा है

मनमाफिक
सुविधाएँ पाते
हैं अपराधी जेलों में
कागज पर
जेलों में रहते
खेल दिखाते मेलों में
जैसे रोज
चढ़ावा चढ़ता
इन पर चढ़ता पैसा है

-कैलाश गौतम

Sunday, August 05, 2018

सुनो कविवर

सुनो कविवर
है नहीं ये समय
शब्दों की जुगाली का

उठो! अपनी आग को
ज़िन्दा करो
फिर से सहेजो
जगाओ वे स्वप्न
केवल स्वप्न मेंंबर अब तक
रहे जो
खा न जाना मात
रखना ध्यान-
मौसम की दलाली का

जानते हो, किस कदर है
अब
चमन का हाल बेढब ?
रंग, खुशबू, फूल
कलियाँ
जी रहे हैं दहशतें सब
गिर गया ईमान
गिरने की हदों तक
आज माली का

उड़ाओ बेखौफ
हर जुल्मो सितम की
धज्जियाँ
नोक पर अब
कलम के
किंचित जड़ो मत चुप्पियाँ
अन्यथा फिर
भोगना परिणाम
इस हीला-हवाली का

-जय चक्रवर्ती

छुआ मैंने आग को

छुआ मैंने आग को
पर  सावधानी से छुआ
खेलता अक्सर रहा
बेख़ौफ़,रिश्तों का जुआ

थी तजुर्बों की हिदायत
मानता कैसे न मैं
और कुछ ही हो गया
मैं ही रहा, जैसे न मैं
हर क़दम पर फिर नया
अनुभव अनोखा सा हुआ
छुआ मैंने सूर्य को
पर रातरानी से छुआ

ज़िंदगी को दाँव पर
रखता रहा मैं उम्र भर
हो नहीं पाया किसी भी
हार का कोई असर
पी गया चुपचाप मैं
जो आँख से पानी चुआ
छुआ मैंने दर्द को
कविता, कहानी से छुआ

चोट खाई ख़ूब पर
सद्भावनाओं के तहत
संधि के प्रस्ताव पर
करता गया मैं दस्तखत
भर्त्सना, निंदा लगीं सब
मुझे मनमानी दुआ
छुआ मैंने राग को
पर सुर्ख़ पानी से छुआ

रहा संयत ख़ूब, भावुक
अश्व की वल्गा कसी
अश्रु आँखों में, न अधरों
पर कभी प्रगटी हँसी
झेल कर पल पल मरण
जीवित रहा मन का सुआ
छुआ मैंने देश को
पर राजधानी से छुआ
                 
-योगेन्द्र दत्त शर्मा

एक फूल सुधियों का

भटके विश्वासों से
क्यों न मुख मोड़ लो
एक फूल सुधियों का
निर्मम बन तोड़ लो

अनजाने मन के जो
कड़वे ये घूंट पिये
आहत अनुबंधों की
कडि़यों को बाँध जिये
मकडी़ के जालों पर
अंटके क्षण खो दिये
सहला कर कांटों की
नोक नए दर्द सिये
छोड़ो मन कुम्हलाये
पर्तों से जोड़ लो

अटकी यह नागफनी
धूप की मुंडेरों पर
डूबते बसेरों की
गन्दुमी कथा
पोंछ रही काजल की रेख
ज्यों गुलाब से
संभ्रम के पाँव थकी
कुमकुमी व्यथा
तुमको क्या जो इन
कन्दीलों की होड़ लो

रेत के बगूले बन
विस्म्रित घन छा गए
आरपार भरमाई
बकुल पांत अधमुंदी
चट्टानी प्रीति मिटी
कालदंस मार गए
जहरीले नाग भरें
प्राणों में गुदगुदी
चाहे फिर
गमलों पर
अपना सिर
फोड़ लो

-डा० इन्दीवर

शीशे ने शीशे को

शीशे ने शीशे को
सहसा
छुआ अंधेरे में

उलट गया कैलेंडर जैसे
तिथियाँ बदल गईं
क्षण भर के ही
लिए सही
गतिविधियाँ बदल गईं
बोल न फूटे
ऐसा अनुभव
हुआ अंधेरे में

वर्षों का सन्नाटा
झोंका
खाकर टूट गया
इस पड़ाव से
उठे नहीं हम
जलसा टूट गया
खेल गए फिर
आँख मूँदकर
जुआ अंधेरे में

जाने कितने
मोड़ मिले
सँकरे गलियारे में
भूल गए हम
सब कुछ जैसे
खुले ओसारे में
साथ बराबर
रही किसी की
दुआ अँधेरे में

-कैलाश गौतम

पहली पहली बार

पहली-पहली बार
गुलाबो
मैके आई है
भरी-भरी है
देह सुहागिन
भरी कलाई है

घर-आँगन
दालाने-देहरी
छत-सीढ़ी गलियारे
उजियारे में
बदल गए हैं
कोनों के अँधियारे
घर के जैसे
रोम-रोम में
पुलक समाई है

चमक उठे
खिड़की-दरवाजे
रैक किताबें
बस्ते
बरसों पर घर
आये जैसे
नए-नए गुलदस्त
सीधी चितवन
छाँह प्यार की
छुवन मिठाई है

ऐसी वैसी
खट्टी-मीठी
बातें हैं बहुतेरी
बतियाने में
हँसी फूटती
केक में जैसे चेरी
सँग-सँग हरदम
हाथ का दर्पण
छोटा भाई है

बचपन के
एल्बम में खोई
अगवारे-पिछवारे
अमराई ही
अमराई में
चिड़िया पंख पसारे
सरसों लदी
कियारी फागुन-
धूप नहाई है

-कैलाश गौतम

शिव बहादुर सिंह भदौरिया [डा०] के नवगीतों पर टिप्पणी

वैसबारा की माटी में कुछ ऐसी खासियत है कि वहाँ साहित्य की फसल कुछ ज्यादा ही लहलहाती रही है। एक दो बार उधर जाने का अवसर मुझे भी मिला है। डलमऊ से लेकर रायबरेली तक जो कुछ लोक में बिखरा पड़ा है उसे डा० शिव बहादुर सिंह भदौरिया के नवगीतों को पढ़कर महसूस किया जा सकता है। उनके नवगीतों में वैसबारा की संस्कृति, वहाँ की लोक शब्दावली, वहाँ प्रचलित ठेठ शब्द जिस खास ठसक के साथ आते हैं वैसा अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। लगता है उन्होंने अपने नवगीतों में एक एक बात शोध कर करके लिखी है चाहे वह गाँव के चित्रण हों या राजनीति की बातें अथवा कतिपय अनुभूतियों के चित्रण... सब कुछ अनूठा-सा सब कुछ मौलिक-सा। और खास बात यह भी कि अपने उत्तराधिकारी के रूप में विनय भदौरिया जैसा नवगीतकार भी सौंपा है उन्होंने साहित्य जगत को। वे अपने नवगीतों के मिस हमेशा हमेशा याद किये जाते रहेंगे कभी रामकिशोर दाहिया के बहाने तो कभी किसी और के बहाने।

-डा० जगदीश व्योम

Friday, June 24, 2016

ओ चिड़िया

-जयप्रकाश श्रीवास्तव

ओ चिड़िया
आंगन मत झांकना
दानों का हो गया अकाल

धूप के लिबासों में
झुलस रही छांव
सूरज की हठधर्मी
ताप रहा गांव
ओ चिड़िया
दिया नहीं बालना
बेच रहे रोशनी दलाल।

मेड़ के मचानों पर
ठिठुरती सदी
व्यवस्थाओं की मारी
सूखती नदी
ओ चिड़िया
तटों को न लांघना
धार खड़े करेगी सवाल।

अपनेपन का जंगल
रिश्तों के ठूंठ
अपने अपनों पर ही
चला रहे मूंठ
ओ चिड़िया
सिर जरा संभालना
लोग रहे पगड़ियां उछाल।
         
-जयप्रकाश श्रीवास्तव 

गीतों के गाँव

-मुकुट सक्सेना

तुमने क्यों
खींच दी लकीरें
दर्पण पर
बिना अर्थ जानें?

क्वांरी अभिव्यक्ति के
हृदय से
यौवन का भार
तड़प रहा
मर्यादित छन्दों के
जाने उस पार

डालो मत
जंजीरें ऐसे क्षण
इच्छा के पाँव
कीलो मत
कीलों से
ठौर-ठौर
गीतों के गाँव

पल भर उड़ने दो
सपनों को
पंखों पर
नये क्षितिज पाने।

स्यानी
अभिलाष का
मनमोहक
मौन मुखर रूप
झुलासाए नहीं
कहीं चितकबरी
आषाढ़ी धूप

कुंजों में साधों की
छांह घनी
बैठो उस ओर
गाओ फिर
मेघ-राग प्यासे हैं
आशा के मोर

अभी और
रहने दो वंशी को
अधरों पर
गीत मधुर गाने !
   
-मुकुट सक्सेना

पृथ्वी पर हस्ताक्षर

-मुकुट सक्सेना

रोज़ सुबह उगता जो
इन्द्रधनुष आँखों में
मैंने तो देखा है
तुमने भी देखा क्या ?

पीड़ा के जल में ही
शुभ्र कमल खिलते हैं
दुर्दिन के भौंरे
मकरन्द लिये मिलते हैं
जीवन का स्पंदन
फूल और परागों में
मैंने तो देखा है
तुमने भी देखा क्या?

इच्छा के मरुथल में
तृष्णा है अन्तहीन
खोज रहे तृप्ति मगर
पास नहीं दूरबीन
सरस्वती जल बहता
अब भी मरु के तल में
मैंने तो देखा है
तुमने भी देखा क्या?

सूर्य नित्य करता है
पृथ्वी पर हस्ताक्षर
और प्रकृति पढ़ती है
उसका हर-हर अक्षर
कालचक्र गतिमय है
क्षण-क्षण नव सर्जन हित
मैंने तो देखा है
तुमने भी देखा क्या ?
           
-मुकुट सक्सेना