-डॉ० सुभाष वसिष्ठ
सभ्यता के
जंगलीपन बीच
पर्त ऊपर पर्त की
आवाज़ का चढ़ना
स्वयं दिपने को
लचीला व्याकरण गढ़ना
बाँध लेना
रूढ़ितोड़क
ज़ंगमय ताबीज़
आ गई संवेदना
उस बिन्दु पर चल के
बस, कथा के रह गए हैं
पत्र पीपल के
मूल्य सारे
ज़िन्दगी के
संग्रहालय चीज़
हर तरफ़ से रीतने की
प्रक्रिया उभरी
रोशनी के नाम लिखकर
सिसकती ढिबरी
प्रश्न होकर रह गई
फिर, उत्तरी तजवीज़
-डॉ० सुभाष वसिष्ठ
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फंस गया मन
यह गीत आज के सामाजिक जीवन पर यथार्थ परक टिप्पणी है | तथा कथित सुसभ्यता, विशेष रूप में नगरों, महानगरों के बीच गीतकर स्वयं को फंसा हुआ महसूस कर रहा है | क्योंकि सभ्य होने के नाम पर मनुष्य कृत्रिम होता जा रहा है | उसका प्रयास केवल और केवल स्वयं को स्थापित करना रह गया है | इस क्रम में वह व्याकरण को अर्थात नियमों को अपने अनुसार लचीला करने से भी नहीं चूकता, विडम्बना यह है कि तथाकथित रूढ़ियों का विरोध करने के लिए उन सूत्रों को प्रयोग में लाता है जो विगलित हो चुके है या समय से पिछड़ गए है -
" स्वयं दिपने को / लचीला व्याकरण गढ़ना वांध लेना रूढ़ि तोड़क जंगमय तावीज |"
गीतकार कहता है - संवेदनात्मक मूल्य, आज या तो कहानी की वस्तुएं होकर रह गयी है अथवा सग्रहालय की |
गीतकार महसूस करता है, कि हर दिशा से हर क्षेत्र में हिसाव जरी है, प्रकाश ढिवरी का सा प्रकाश भी नगण्य लक है | परिणामत: उत्तर भी प्रश्न होकर रह गए हैं |
इस सहज गीत का शिल्प उच्च स्तरीय है | भाषा प्रांजल परन्तु संप्रेष्य है |
शत – शत बधाइयाँ
डॉ. गिरीश
मथुरा
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