-डॉ० सुभाष वसिष्ठ
सोनिल गौरैया
बटन दबा
शुरू हुआ पहिया
सड़कों पर
निकल पड़ी घर से
दिनचर्या रोज़ की
एक अदद
गठरी सिर पर लिये
रोटी के बोझ की
चप्पू बिन
आसमान नाप रही
नैया
धूप की सतह
चमकी दिन भर
आदम की पीठ पर
पीली नज़रें
कृतज्ञ निर्भर
गद्दी की दीठ पर
मजदूरी :
गलियों में
नाथहीन गैया
-डॉ० सुभाष वसिष्ठ
1 comment:
दिनचर्या रोज की
यह गीत निम्न वर्ग / निम्न मध्य वर्ग के प्रतिदिन के उन कार्यों का लेखा जोखा है जो उन्हें, रोटी के लिए विवशता में करने पड़ते हैं | उपर्युक्त बात को बहुत ही सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है | जीवन और जगत के चक्र की शुरुआत निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से सार्थकता के साथ उकेरी गई है –
आ बैठी टंकी पर,
सोनिल गौरेया
वटन दवा शुरू हुआ पहिया |
“ चप्पू विन आसमान नाप रही है – गीतकार ने इस पंक्ति में अहसास मानव की उस जिजीविषा को उकेरा है जिसमे विन साधन के भी वह जीवन नैया को खेने में विवश हैं | ”
अतिसुन्दर यथार्थ
डॉ. गिरीश
मथुरा
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