-डा० मालिनी गौतम
हर ओर निर्मम पल
टीसता है मन कि जैसे
सुआ कोई चुभ गया है
ओढ़ पंखों का दुशाला
क्यों हुई गुमसुम बया है
इन सवालों के कहीं
मिलते नहीं हैं हल
एक हांडी आँच पर
सम्बंध पल-पल जाँचती है
अधपके-से सूत्र सब
बैचेन होकर ताकती है
गगन छूने को धुंआँ है
हो रहा बेकल
मोरपंखी ओढ़नी में
संदली कुछ याद महकें
पर, कशीदों में कढ़े
कोयल-पपीहे अब न चहकें
दृगों में ठहरा हुआ है
रतजगा काजल
-डा० मालिनी गौतम
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