-संध्या सिंह
मिले धरा पर बिना नियम के
कैसी ये तकसीम सुखों की
कैसे ये बंटवारे गम के
कहीं अमीरी के बक्से में
सोना-सोना ख़्वाब धरे हैं
कहीं फटी किस्मत का पल्लू
सिक्का-सिक्का स्वप्न मरे हैं
जहाँ किश्त पर नींद मिली हो
वहीं फिक्र के डाकू धमके
कहीं कुतर्कों से ‘आज़ादी‘
रोज़ नयी परिभाषा लाती
कहीं रिवाजों के पिंजरे में
चिड़िया पंख लिए मर जाती
जहाँ भूख से आंत ऐंठती
वहीं पहाड़े हैं संयम के
जहाँ लबालब नदिया बहती
वहीं बरसते बादल आ कर
जहाँ धरा की सूखी छाती
धूप बैठती पाँव जमा कर
जहाँ थकी हो प्यास रेत में
वहीं भरम का पानी चमके
-संध्या सिंह
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