-चित्रांश वाघमारे
फिर भी चमक निराली लेकर
रोज लौटती है बच्चो तक
रोटी लेकर थाली लेकर
टूट गयी है भीतर से पर
तिनका इनका जोड़ रही है
धरती हुई आग की भट्टी
दोपहरी की तेज़ धूप है
पर अम्मा की काया जैसे
तपकर निखरा हुआ रूप है
अपनी साध साधती अम्मा
मौसम को झिंझोड़ रही है
अम्मा को मौसम की चिंता
नए समय की फ़िक्र अलग है
पर माँ घर-आँगन से रखती
इस चिंता का ज़िक्र,अलग है
हंसकर पल भर में ही अम्मा
सारी फ़िक्र निचोड़ रही है
पर अम्मा को थोड़ा दुख है
मन में अब भी कसक बची है
सोच रही माँ नए समय ने
कैसी नयी बिसात रची है
भोली नई-नई सी नस्लें
लीक पुरानी छोड़ रही है
अम्मा घर की रानी जैसी
बच्चो की गुड़-धानी जैसी
मुस्कानों, खिलखिलाहटों की
उजली हुई कहानी जैसी
आँचल के झोंके से अम्मा
वेग हवा के मोड़ रही है
- चित्रांश वाघमारे
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