[ छः ]
नई सदी में
ढूँढ़ रहा मन
गई सदी का गाँव।
बड़ी ललक के
साथ गया था देखूँ
वह बरगद
जिसके
नीचे जेठ-दुपहरी
रहती थी गद-गद
नाम-निशान
नहीं बरगद का
दिखी कहीं ना छाँव।
बट समीप ही
पनघट
जिसका
था मीठा पानी
पीकर तृप्त
सभी होते थे
तुलसी-रहमानी
वह भी चौरस
पटा पड़ा था
हुआ सुठांव, कुठांव।
ताल-तलैय्ये, खेत-
झोपडों में तब्दील हुए
खोज रहे बच्चे
किताब में
नीम और महुए
शहर गाँव में
आया कैसे
चुपके-चुपके पाँव।
महक खो
गई है रिश्तों की
बैठक है सूनी
देर नहीं
लगती घट जाती
पल में अनहोनी
घर-घर हैं
शकुनी के पाँसे
अपने-अपने दाँव।
-शैलेन्द्र शर्मा
नई सदी में
ढूँढ़ रहा मन
गई सदी का गाँव।
बड़ी ललक के
साथ गया था देखूँ
वह बरगद
जिसके
नीचे जेठ-दुपहरी
रहती थी गद-गद
नाम-निशान
नहीं बरगद का
दिखी कहीं ना छाँव।
बट समीप ही
पनघट
जिसका
था मीठा पानी
पीकर तृप्त
सभी होते थे
तुलसी-रहमानी
वह भी चौरस
पटा पड़ा था
हुआ सुठांव, कुठांव।
ताल-तलैय्ये, खेत-
झोपडों में तब्दील हुए
खोज रहे बच्चे
किताब में
नीम और महुए
शहर गाँव में
आया कैसे
चुपके-चुपके पाँव।
महक खो
गई है रिश्तों की
बैठक है सूनी
देर नहीं
लगती घट जाती
पल में अनहोनी
घर-घर हैं
शकुनी के पाँसे
अपने-अपने दाँव।
-शैलेन्द्र शर्मा
1 comment:
अच्छा गीत बधाई
Post a Comment