[ एक ]
आदमी
अन्याय कब से
सह रहा है
कर गुजरने को
समय कुछ कह रहा है।
बन्द है वह-
जंग खाई आलमारी
कैद होकर रह गई
किस्मत हमारी
लग रहीं बेकार अब
सारी दलीलें
अब तो पानी
सर के ऊपर बह रहा है।
हो चुकीं
कितनी कवायद,
कदम तालें
हो न पायीं
दिये की वारिस मशालें
दुधमुहाँ बच्चा
पकड़ता पाँव बरबस
क्यों न उसकी
बाँह कोई गह रहा है।
धूप छनकर
सीखचों में आ रही है
जंगली चिड़िया
प्रभाती गा रही है
झोपड़ों के बीच
जो तनकर खड़ा था
दुर्ग का वह
आज गुम्बद ढह रहा है।
-डा० रविशंकर पाण्डेय
आदमी
अन्याय कब से
सह रहा है
कर गुजरने को
समय कुछ कह रहा है।
बन्द है वह-
जंग खाई आलमारी
कैद होकर रह गई
किस्मत हमारी
लग रहीं बेकार अब
सारी दलीलें
अब तो पानी
सर के ऊपर बह रहा है।
हो चुकीं
कितनी कवायद,
कदम तालें
हो न पायीं
दिये की वारिस मशालें
दुधमुहाँ बच्चा
पकड़ता पाँव बरबस
क्यों न उसकी
बाँह कोई गह रहा है।
धूप छनकर
सीखचों में आ रही है
जंगली चिड़िया
प्रभाती गा रही है
झोपड़ों के बीच
जो तनकर खड़ा था
दुर्ग का वह
आज गुम्बद ढह रहा है।
-डा० रविशंकर पाण्डेय
No comments:
Post a Comment