-बृजनाथ श्रीवास्तव
ओढ़ चदरिया
बीच बजरिया
भर भर कर आँखी
कबीरा बाँच रहा साखी
भरी दुपहरी
घना अंधेरा
गीदड़ बोले जी
जंगल के सब
नाग-नागिनी
केंचुल खोलें जी
भेड़ बकरियाँ
पकड़ जबरिया
माँद-माँद छाकी
कबीरा बाँच रहा साखी
जोग साधते
जोगी-जोगन
अन्तर्ध्यान हुए
किसकी साजिश
चींटी के जो
निकले पंख नए
महल अटरिया
हाथ गगरिया
पोर-पोर चाखी
कबीरा बाँच रहा साखी
षट्कर्मी से
हुईं तिकड़मी
मर्यादा घर की
छूरी मारैं
कसमें बाँचें
भाई के सर की
बुद्धि जठरिया
कोख गठरिया
पकड़-पकड़ राखी
कबीरा बाँच रहा साखी
-बृजनाथ श्रीवास्तव
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