-जयप्रकाश श्रीवास्तव
ओ चिड़िया
आंगन मत झांकना
दानों का हो गया अकाल
धूप के लिबासों में
झुलस रही छांव
सूरज की हठधर्मी
ताप रहा गांव
ओ चिड़िया
दिया नहीं बालना
बेच रहे रोशनी दलाल।
मेड़ के मचानों पर
ठिठुरती सदी
व्यवस्थाओं की मारी
सूखती नदी
ओ चिड़िया
तटों को न लांघना
धार खड़े करेगी सवाल।
अपनेपन का जंगल
रिश्तों के ठूंठ
अपने अपनों पर ही
चला रहे मूंठ
ओ चिड़िया
सिर जरा संभालना
लोग रहे पगड़ियां उछाल।
-जयप्रकाश श्रीवास्तव
1 comment:
भावपूर्ण रचना,,, आपकी रचनाओं ने विशेष प्रभावित किया ।
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