Friday, June 24, 2016

ओ चिड़िया

-जयप्रकाश श्रीवास्तव

ओ चिड़िया
आंगन मत झांकना
दानों का हो गया अकाल

धूप के लिबासों में
झुलस रही छांव
सूरज की हठधर्मी
ताप रहा गांव
ओ चिड़िया
दिया नहीं बालना
बेच रहे रोशनी दलाल।

मेड़ के मचानों पर
ठिठुरती सदी
व्यवस्थाओं की मारी
सूखती नदी
ओ चिड़िया
तटों को न लांघना
धार खड़े करेगी सवाल।

अपनेपन का जंगल
रिश्तों के ठूंठ
अपने अपनों पर ही
चला रहे मूंठ
ओ चिड़िया
सिर जरा संभालना
लोग रहे पगड़ियां उछाल।
         
-जयप्रकाश श्रीवास्तव 

1 comment:

Ashok Sharma 'katethiya' said...

भावपूर्ण रचना,,, आपकी रचनाओं ने विशेष प्रभावित किया ।