Friday, June 24, 2016

गीतों के गाँव

-मुकुट सक्सेना

तुमने क्यों
खींच दी लकीरें
दर्पण पर
बिना अर्थ जानें?

क्वांरी अभिव्यक्ति के
हृदय से
यौवन का भार
तड़प रहा
मर्यादित छन्दों के
जाने उस पार

डालो मत
जंजीरें ऐसे क्षण
इच्छा के पाँव
कीलो मत
कीलों से
ठौर-ठौर
गीतों के गाँव

पल भर उड़ने दो
सपनों को
पंखों पर
नये क्षितिज पाने।

स्यानी
अभिलाष का
मनमोहक
मौन मुखर रूप
झुलासाए नहीं
कहीं चितकबरी
आषाढ़ी धूप

कुंजों में साधों की
छांह घनी
बैठो उस ओर
गाओ फिर
मेघ-राग प्यासे हैं
आशा के मोर

अभी और
रहने दो वंशी को
अधरों पर
गीत मधुर गाने !
   
-मुकुट सक्सेना

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