-चित्रांश वाघमारे
हर तरफ केवल तपन
कैसे तलाशें छाँव ॥
झेलती है हर कली
अब द्रौपदी सी,
मौसमी दुःशासनों के
घाव गहरे ।
पेड़ छलनी हो गया
शाखा विकल है,
हर कहीं पर घाव के
कुछ बिम्ब उभरे ।
नागफनियाँ उग रहीं है
मालती के गाँव ॥
राजपथ पर
स्वर्ण का मेला लगा है,
तृप्त होती
राजकोषों की पिपासा ।
टेरती पगडंडियाँ जब
राजपथ को
दे रहे कौटिल्य सब -
केवल दिलासा ।
हारती पगडंडियाँ ही -
पांडवों सी दाँव ॥
अब चतुर्दिक
धुंध छाई है शहर में,
एक भी अपनत्व वाला
स्वर नहीं है ।
गाँव के भी
व्याकरण बदले हुए है
शोर में, संगीत में -
अंतर नहीं है ।
आज शीतलता नहीं है
बरगदो के ठाँव ॥
-चित्रांश वाघमारे
3 comments:
बहुत अच्छा नवगीत !!
बहुत अच्छा नवगीत !!
आपका आभार ।
- चित्रांश वाघमारे
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