Sunday, August 05, 2018

एक फूल सुधियों का

भटके विश्वासों से
क्यों न मुख मोड़ लो
एक फूल सुधियों का
निर्मम बन तोड़ लो

अनजाने मन के जो
कड़वे ये घूंट पिये
आहत अनुबंधों की
कडि़यों को बाँध जिये
मकडी़ के जालों पर
अंटके क्षण खो दिये
सहला कर कांटों की
नोक नए दर्द सिये
छोड़ो मन कुम्हलाये
पर्तों से जोड़ लो

अटकी यह नागफनी
धूप की मुंडेरों पर
डूबते बसेरों की
गन्दुमी कथा
पोंछ रही काजल की रेख
ज्यों गुलाब से
संभ्रम के पाँव थकी
कुमकुमी व्यथा
तुमको क्या जो इन
कन्दीलों की होड़ लो

रेत के बगूले बन
विस्म्रित घन छा गए
आरपार भरमाई
बकुल पांत अधमुंदी
चट्टानी प्रीति मिटी
कालदंस मार गए
जहरीले नाग भरें
प्राणों में गुदगुदी
चाहे फिर
गमलों पर
अपना सिर
फोड़ लो

-डा० इन्दीवर

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