Sunday, August 05, 2018

छुआ मैंने आग को

छुआ मैंने आग को
पर  सावधानी से छुआ
खेलता अक्सर रहा
बेख़ौफ़,रिश्तों का जुआ

थी तजुर्बों की हिदायत
मानता कैसे न मैं
और कुछ ही हो गया
मैं ही रहा, जैसे न मैं
हर क़दम पर फिर नया
अनुभव अनोखा सा हुआ
छुआ मैंने सूर्य को
पर रातरानी से छुआ

ज़िंदगी को दाँव पर
रखता रहा मैं उम्र भर
हो नहीं पाया किसी भी
हार का कोई असर
पी गया चुपचाप मैं
जो आँख से पानी चुआ
छुआ मैंने दर्द को
कविता, कहानी से छुआ

चोट खाई ख़ूब पर
सद्भावनाओं के तहत
संधि के प्रस्ताव पर
करता गया मैं दस्तखत
भर्त्सना, निंदा लगीं सब
मुझे मनमानी दुआ
छुआ मैंने राग को
पर सुर्ख़ पानी से छुआ

रहा संयत ख़ूब, भावुक
अश्व की वल्गा कसी
अश्रु आँखों में, न अधरों
पर कभी प्रगटी हँसी
झेल कर पल पल मरण
जीवित रहा मन का सुआ
छुआ मैंने देश को
पर राजधानी से छुआ
                 
-योगेन्द्र दत्त शर्मा

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