Sunday, August 05, 2018

शीशे ने शीशे को

शीशे ने शीशे को
सहसा
छुआ अंधेरे में

उलट गया कैलेंडर जैसे
तिथियाँ बदल गईं
क्षण भर के ही
लिए सही
गतिविधियाँ बदल गईं
बोल न फूटे
ऐसा अनुभव
हुआ अंधेरे में

वर्षों का सन्नाटा
झोंका
खाकर टूट गया
इस पड़ाव से
उठे नहीं हम
जलसा टूट गया
खेल गए फिर
आँख मूँदकर
जुआ अंधेरे में

जाने कितने
मोड़ मिले
सँकरे गलियारे में
भूल गए हम
सब कुछ जैसे
खुले ओसारे में
साथ बराबर
रही किसी की
दुआ अँधेरे में

-कैलाश गौतम

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